तपता तो है तन ज्यों ज्यों ये सूरज सर पे चढ़ता है,
मन में वास तेरा है तो सावन भी घूमड़ता है,बना ना दो इन आँखों को भरे जल का कोई झरना,
ये बहतीं हैं और कहतीं हैं तू ऐसे क्यों बिछड़ता है|
सृष्टि के सृजन करता घड़ी और पल क्या जानो तुम,
ये दूरी क्यों ज़रूरी है ज़रा ये ही बता दो तुम,
अगणित सूर्य जलतें हैं तेरे ही तेज से नभ में,
विरह की आग में खुद को भी थोड़ा सा जला लो तुम|
वृंदावन सा है उपवन मेरा ये मन सुनो मोहन,
तुम्हारी आस में हमने सजाया है भरा यौवन,
मेरा सर्वस्व समर्पित है, समय की गति करो सीमित,
मिलन की रात ही बरसेगा सनातन सत्य का सावन|
- Amit Roop
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