वो तेरे वेश
में रहते हैं,
खुद को शिव बताते हैं,
भस्मांग लगा कर
के, धतूरा भाँग
कहते हैं,
बड़ा सा एक
अंतर है, भगवन
कैसे मानू मैं,
वो जीवन चक्र
के बस में हैं, आते
और जाते हैं|
तुम्हारी मृत्यु दासी
है, तू अजन्मा
अविनाशी है,
न बंधन मोह
माया के, तू दिगंबर सन्यासी
है,
तेरा ही नाम
लेने से भला होता है
देवों का,
तेरे सीस में
है गंगा, तेरे
चरणों में काशी
है|
विष का पान
तुम करते और विषधर सजतें
हैं तन पर,
गौरा हैं जगत
जननी और तुम हो प्राण
शिव शंकर,
तुम्हारा साथ पाकर
के हुआ है धन्य मेरा
मन,
बनी है आत्मा
दुल्हन तुम्हारी, बनाया
तुमको परमेश्वर|
विलाश और वैभव
तुमको कभी भी राष न
आये
बंधन आत्मा के
लेकिन तुमने बाबा
खूब ही निभाए
सती जब साथ
छोड़ कर गईं जिस छण
में दुनियाँ से
फिरे तुम तीनों
लोकों में मृत देह देवी
की स्वयं सीने
से लगाए|
रिश्ता तुमसे रखने
को बड़ा मन हो रहा
मेरा,
समर्पण कर दिया
पूरा, ये तन मन सब
हुआ तेरा,
आये जब कभी
भी रात जीवन
की, तो प्रभु
तुम ही,
स्वयं आना मिलन
को बस, निवेदन
मान लो मेरा|
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